Bharat me Education System ki chunauti : किताबों और ज़िंदगी के बीच का फासला

Bharat me Education System को लेकर हम सभी के मन में एक सवाल ज़रूर उठता है: “क्या यह व्यवस्था हमारे बच्चों को असल ज़िंदगी के लिए तैयार कर रही है?” कागज़ पर तो हमारे पास IIT, AIIMS जैसे प्रतिष्ठित संस्थान हैं, लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहानी बयां करती है। आइए, कुछ ठोस उदाहरणों के साथ इन चुनौतियों को समझें।

Table of Contents

1. Education System शहर और गाँव का फर्क: जहाँ क्लासरूम नहीं, पेड़ की छाँव है

Education System

बिहार के एक छोटे से गाँव की कहानी सुनिए। यहाँ के प्राइमरी स्कूल में दो कमरे हैं, लेकिन 120 बच्चे। जब बारिश होती है, तो टीचर बच्चों को पास के नीम के पेड़ के नीचे बिठाकर पढ़ाते हैं। यहाँ ब्लैकबोर्ड तक नहीं, स्लेट की कमी है। यह सिर्फ़ एक उदाहरण नहीं, बल्कि हज़ारों ग्रामीण स्कूलों की हकीकत है। 2019-20 की यूडीआईएसई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत के 40% सरकारी स्कूलों में बिजली नहीं है, और 30% में शौचालय की सुविधा टूटी हुई है। जबकि दिल्ली के एक प्राइवेट स्कूल में बच्चे स्मार्ट क्लासेज़ में 3D प्रोजेक्शन से पढ़ रहे हैं। यह असमानता सिर्फ़ इमारतों तक नहीं, शिक्षा के अवसरों तक पहुँचती है।

सवाल यह है: क्या हमारी शिक्षा नीतियाँ गाँव के उस बच्चे की पहुँच में हैं, जिसके पास स्कूल जाने के लिए चप्पल तक नहीं?

2. Education System: रट्टा मारकर नंबर लाना vs.सोचने की ताकत

रिया, मुंबई की 10वीं की होनहार छात्रा, हर सवाल का जवाब रटकर देती है। लेकिन जब उसके पिता ने उसे घर का बजट बनाने को कहा, तो वह घंटों उलझी रही। यही समस्या है हमारी शिक्षा की—नंबरों की रेस में बच्चे “क्यों” और “कैसे” सीखना भूल जाते हैं। कोचिंग सेंटर्स में बच्चों से कहा जाता है: “क्वेश्चन बैंक याद करो, सोचो मत!”

फिनलैंड की Education System से सीखें: वहाँ बच्चों को रटने के बजाय प्रोजेक्ट्स के ज़रिए समझाया जाता है। जबकि भारत में, NCERT की एक स्टडी के अनुसार, 60% से ज़्यादा बच्चे कक्षा 5 तक बुनियादी गणित नहीं सीख पाते। स्कूलों में “पास करने के लिए पढ़ाई” होती है, “समझने के लिए” नहीं।

3. Education System: एग्ज़ाम का प्रेशर: जिंदगी-मौत का सवाल

2019 में, हैदराबाद का 16 साल का राहुल (नाम बदला हुआ) NEET की तैयारी करते हुए खुदकुशी कर लेता है। उसकी डायरी में लिखा था: “मैं फेल हो गया तो घर वालों को क्या जवाब दूँगा?” कोटा के कोचिंग हॉस्टल्स में ऐसी कहानियाँ आम हैं। NCRB के आँकड़े बताते हैं कि 2022 में 13,000 से ज़्यादा छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें से 28% का कारण “परीक्षा में फेल होने का डर” था।

क्या हल है? दिल्ली सरकार के ‘हैप्पीनेस करिकुलम’ जैसे प्रयासों को बढ़ावा देने की ज़रूरत है, जहाँ बच्चे मेडिटेशन और इमोशनल वेलनेस सीखते हैं।

4.अंग्रेज़ी का भूत: जहाँ भाषा बन जाती है बाधा

छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके की 12 साल की सीमा को स्कूल में इंग्लिश में बोलने पर डांट पड़ती है। वह घर पर गोंडी बोलती है, लेकिन स्कूल में उसकी कॉपी पर लिखा जाता है: “तुम्हारी इंग्लिश कमज़ोर है।” भाषा की यह दीवार लाखों बच्चों के आत्मविश्वास को तोड़ देती है। ASER 2022 की रिपोर्ट कहती है कि ग्रामीण भारत में कक्षा 5 के 50% बच्चे अंग्रेजी का साधारण वाक्य नहीं पढ़ सकते।

क्या गलत है? भाषा शिक्षण का उद्देश्य संचार होना चाहिए, न कि स्टेटस सिंबल। केरल के सरकारी स्कूलों में मलयालम मीडियम में पढ़ने वाले बच्चे आईआईटी तक पहुँच रहे हैं—यह साबित करता है कि मातृभाषा में शिक्षा अवसरों की चाबी है।

5. Education System टीचर्स की कमी: एक टीचर, पाँच क्लास!

उत्तर प्रदेश के एक सरकारी स्कूल में श्रीमती कविता (45) एक साथ तीसरी, चौथी और पाँचवीं क्लास को पढ़ाती हैं। उनका कहना है: “मैं खुद गणित में कमज़ोर हूँ, लेकिन बच्चों को पढ़ाना पड़ता है।” शिक्षा मंत्रालय के आँकड़े बताते हैं कि भारत में 10 लाख से ज़्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं। कई राज्यों में टीचर्स की पोस्टिंग सियासी दबाव में होती है, और ट्रेनिंग की कमी से पढ़ाने का तरीका पुराना पड़ गया है।

एक उम्मीद: ‘निष्ठा’ जैसे टीचर ट्रेनिंग प्रोग्राम्स शुरू हुए हैं, लेकिन इन्हें गाँव-गाँव तक पहुँचाने की ज़रूरत है।

6. Education System लड़कियों की पढ़ाई: “बेटी को पढ़ाओगे, तो दहेज कौन देगा?”

राजस्थान के एक गाँव में 14 साल की रेशमा ने स्कूल छोड़ दिया, क्योंकि उसके भाई का स्कूल उससे 3 किलोमीटर दूर था। पिता ने कहा: “लड़की को इतना दूर भेजने में डर लगता है।” समाज की यह सोच आज भी लाखों रेशमाओं का भविष्य अंधकार में छोड़ देती है। यूनेस्को की 2023 रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 15-18 साल की 40% लड़कियाँ स्कूल छोड़ देती हैं, जिनमें से 60% का कारण घरेलू ज़िम्मेदारियाँ या सुरक्षा की कमी है।

रोशनी की किरण: हरियाणा के ‘सखी शिक्षा वाहिनी’ जैसे प्रोग्राम्स में महिलाएँ गाँव-गाँव जाकर लड़कियों के परिवार को समझाती हैं। ऐसे प्रयासों से बालिका शिक्षा दर में 18% का सुधार हुआ है।

7. Education System डिजिटल डिवाइड: ऑनलाइन क्लासेज़ जहाँ मोबाइल एक परिवार के लिए एक

कोविड के दौरान केरल के एक गरीब परिवार की 15 साल की अंजलि ने अपने पिता के ऑफिस वाले मोबाइल से ऑनलाइन क्लास की। लेकिन जब पिता को काम पर जाना होता, तो वह क्लास मिस कर देती। उसकी कहानी उन 70% भारतीय बच्चों की है जिनके पास ऑनलाइन पढ़ाई के लिए न तो डिवाइस था, न ही इंटरनेट। डिजिटल एजुकेशन पर NITI आयोग की रिपोर्ट बताती है कि ग्रामीण इलाकों में केवल 15% घरों में ही इंटरनेट की सुविधा है।

समाधान की ओर: ‘डिजिटल भारत’ के तहत स्कूलों में लैपटॉप दिए जा रहे हैं, लेकिन बिजली और नेटवर्क की समस्या अभी भी बड़ी बाधा है।

8. स्किल एजुकेशन की अनदेखी: “डिग्री लेकर क्या करोगे?”

महाराष्ट्र के एक आईटीआई कॉलेज के छात्र रोहित (22) ने इलेक्ट्रीशियन का कोर्स किया, लेकिन नौकरी नहीं मिली। कारण? उसके पास “कम्युनिकेशन स्किल्स” नहीं थे। भारत में 75% इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स नौकरी के लायक नहीं माने जाते। यह सवाल उठता है: क्या हमारी शिक्षा रोज़गार से जुड़ी है?

रास्ता क्या है? गुजरात के ‘कौशल्या यूनिवर्सिटी’ जैसे मॉडल, जहाँ बच्चे स्कूल स्तर से ही व्यावसायिक प्रशिक्षण लेते हैं, देशभर में लागू किए जाने चाहिए।

9. Education System में राजनीति: जब सिलेबस बन जाता है विवाद का मुद्दा

2022 में, महाराष्ट्र के इतिहास की किताबों से छत्रपति शिवाजी के अध्याय को कम करने पर बवाल मच गया। Education System अक्सर राजनीतिक एजेंडे की शिकार होती है। NCERT की किताबें हर साल किसी न किसी विवाद में घिर जाती हैं। सवाल है: क्या बच्चों को तटस्थ और तथ्यात्मक इतिहास पढ़ाया जा रहा है?

आखिरी बात: उम्मीद की किरणें

इन चुनौतियों के बीच कुछ हाथ समाधान की ओर भी बढ़ रहे हैं। केरल के ‘स्टडी बडी’ प्रोग्राम में कॉलेज स्टूडेंट्स गाँव के बच्चों को पढ़ाते हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में हैप्पीनेस करिकुलम से बच्चों की मानसिक सेहत सुधरी है। आवश्यकता है तो बस इस बात की कि हम शिक्षा को “डिग्री” से आगे “ज्ञान” तक ले जाएँ।

हर बच्चे की पहुँच में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा हो—यह सपना तभी सच होगा, जब:

  • शिक्षकों को सिर्फ़ नौकरी नहीं, मिशन समझा जाए।
  • पाठ्यक्रम में ज़िंदगी के सबक शामिल हों।
  • समाज लड़कियों की पढ़ाई को “खर्च” नहीं, “निवेश” माने।

Education System को सुधार नहीं, एक “क्रांति” की ज़रूरत है। और यह क्रांति, हमारी सोच बदलने से शुरू होगी।

Education System की टिप्पणी

“शिक्षा वह हथियार है जिससे दुनिया बदली जा सकती है।” — नेल्सन मंडेला का यह कथन भारत के लिए तभी सार्थक होगा, जब हम उस बच्चे तक पहुँचेंगे, जिसके हाथ में किताब नहीं, मज़दूरी का औज़ार है।

Bharat me Education System से जुड़े अक्सर पूछे जाने वाले सवाल (FAQ)

1. Education System प्रणाली की सबसे बड़ी चुनौती क्या है?

सबसे बड़ी चुनौती “एकरूपता की कमी” है। शहरी प्राइवेट स्कूलों में 3D लैब और स्मार्ट क्लासेज़ हैं, जबकि ग्रामीण स्कूलों में बुनियादी सुविधाएँ जैसे बिजली, शौचालय और कुर्सियाँ भी नदारद हैं। इसके अलावा, रट्टामार पढ़ाई, भाषा की बाधाएँ, और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दे व्यवस्था को कमज़ोर करते हैं।

2. गाँव और शहर के स्कूलों में इतना फर्क क्यों है?

इसका मुख्य कारण संसाधनों का असमान वितरण और नीतियों का ठीक से क्रियान्वयन न होना है। उदाहरण के लिए, दिल्ली के एक स्कूल का बजट किसी ग्रामीण स्कूल के मुकाबले 10 गुना ज़्यादा हो सकता है। सरकारी आँकड़े बताते हैं कि 40% ग्रामीण स्कूलों में बिजली नहीं है, जबकि शहरी स्कूल डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर पर भारी निवेश कर रहे हैं।

3. रट्टा मारकर पढ़ाई” से बच्चों को क्या नुकसान होता है?

रटने की आदत क्रिटिकल थिंकिंग और प्रैक्टिकल स्किल्स को खत्म कर देती है। मुंबई की रिया जैसे बच्चे नंबर तो ले आते हैं, लेकिन बजट बनाने जैसे बेसिक काम में फेल हो जाते हैं। NCERT की स्टडी के मुताबिक, 60% बच्चे कक्षा 5 तक बुनियादी गणित नहीं समझ पाते।

4. परीक्षा का दबाव इतना खतरनाक क्यों हो गया है?

इसकी वजह समाज की “सफलता = डिग्री” वाली सोच है। NEET/JEE जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं में लाखों बच्चे बैठते हैं, लेकिन सीटें सीमित होने के कारण 90% को “फेल” का ठप्पा लग जाता है। NCRB के अनुसार, 2022 में 13,000 छात्रों ने आत्महत्या की, जिनमें से 28% का कारण परीक्षा का डर था।

5. अंग्रेजी पर ज़ोर देना क्यों गलत है?

अंग्रेजी को “स्मार्टनेस का पैमाना” बना दिया गया है, जबकि यह सिर्फ़ एक भाषा है। छत्तीसगढ़ की सीमा जैसे बच्चे मातृभाषा में बेहतर सीख सकते हैं, लेकिन स्कूल उन्हें अंग्रेजी में कमज़ोर बताकर हतोत्साहित करते हैं। ASER 2022 की रिपोर्ट कहती है कि 50% ग्रामीण बच्चे अंग्रेजी का साधारण वाक्य नहीं पढ़ सकते।

6. टीचर्स की कमी का असर कैसे पड़ता है?

एक टीचर जब पाँच कक्षाओं को पढ़ाता है, तो गुणवत्ता गिरना तय है। शिक्षा मंत्रालय के मुताबिक, भारत में 10 लाख से ज़्यादा शिक्षकों के पद खाली हैं। कई टीचर्स को विषयों की बेसिक समझ भी नहीं होती, जैसे UP की श्रीमती कविता जो खुद गणित में कमज़ोर हैं, लेकिन बच्चों को पढ़ा रही हैं।

7. लड़कियों की पढ़ाई रुकने का मुख्य कारण क्या है?

सुरक्षा की चिंता और पुरानी सामाजिक मान्यताएँ प्रमुख कारण हैं। राजस्थान की रेशमा को स्कूल इसलिए छोड़ना पड़ा क्योंकि उसके गाँव में लड़कियों के लिए सेफ ट्रांसपोर्ट नहीं था। यूनेस्को की रिपोर्ट कहती है कि 15-18 साल की 40% लड़कियाँ स्कूल छोड़ देती हैं।

8. ऑनलाइन पढ़ाई गाँवों तक क्यों नहीं पहुँच पाई?

डिजिटल डिवाइड की वजह से। NITI आयोग के अनुसार, ग्रामीण भारत में सिर्फ़ 15% घरों में इंटरनेट है। केरल की अंजलि जैसे बच्चों को पिता के मोबाइल से क्लास करनी पड़ती थी, लेकिन जब वह काम पर जाते, तो पढ़ाई छूट जाती थी।

9. क्या भारत में स्किल-बेस्ड एजुकेशन पर ध्यान दिया जा रहा है?

अभी नहीं। 75% इंजीनियरिंग ग्रेजुएट्स नौकरी के लिए अयोग्य माने जाते हैं, क्योंकि शिक्षा रटंत पर आधारित है। हालाँकि, गुजरात की ‘कौशल्या यूनिवर्सिटी’ जैसे मॉडल उम्मीद जगाते हैं, जहाँ बच्चे स्कूल स्तर से ही प्रैक्टिकल स्किल्स सीखते हैं।

10. क्या इन चुनौतियों का कोई समाधान है?

हाँ! स्थानीय स्तर पर पहल बदलाव ला सकती है। जैसे:
* केरल का ‘स्टडी बडी’ प्रोग्राम, जहाँ कॉलेज स्टूडेंट्स गाँव के बच्चों को पढ़ाते हैं।
* दिल्ली का ‘हैप्पीनेस करिकुलम’ जो मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्रित है।
* हरियाणा की ‘सखी शिक्षा वाहिनी’ जो लड़कियों की पढ़ाई के लिए परिवारों को जागरूक करती है।

अंतिम बात

शिक्षा को “डिग्री” से आगे “ज्ञान” तक ले जाने के लिए हमें सिस्टम, समाज और सोच—तीनों स्तरों पर काम करना होगा।

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